कुछ ऐसा था बाबूलाल गौर का 2 जून 1930 से 21 अगस्त 2019 तक का सफर

8/21/2019 12:26:05 PM

भोपाल: मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर का जन्म 2 जून 1930 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। वे भाजपा में लगातार 10 बार चुनाव जीतने वाले अकेले नेता थे। 1974 में वे सबसे पहले भोपाल की गोविंदपुरा सीट से उपचुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते थे। बाबू लाल गौर 23 अगस्त 2004 से 29 नवंबर 2005 तक वे मप्र के मुख्यमंत्री रहे थे। 2013 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा फिर सत्ता में आई और उन्हें मंत्री बनाया गया।



बचपन व शिक्षा
बताया जाता है कि उनके नाम के पीछे एक बहुत रोचक किस्सा है। बाबूलाल गौर के पिता ने उनका नाम बाबूराम यादव रखा था। जब वे प्रतापगढ़ में वे जब अपने गांव में स्कूल जाते थे तो वहां तीन छात्र बाबूराम यादव नाम के पढ़ते थे। एक दिन टीचर ने कहा कि जो मेरी बात को गौर से सुनेगा और जवाब देगा तो उसका नाम बाबूराम गौर कर देंगे। बाबूलाल ने टीचर के सवाल का सही जवाब दिया और यादव की जगह उनका नाम गौर हो गया। भोपाल आया तो लोगों ने बाबूराम की जगह उन्हें बाबूलाल कहना शुरू कर दिया और इस तरह उनका नाम बाबूराम यादव से बाबूलाल गौर हो गया। उन्होंने बीए-एलएलबी की पढ़ाई की थी।



भोपाल में एंट्री
1938 में बाबूलाल गौर के पिता नौकरी के सिलसिले में परिवार सहित भोपाल के बरखेड़ी गांव आ गए। यहां उनके पिता अंग्रेजों द्वारा दी गई शराब कंपनी की दुकान चलाते थे। लेकिन, गौर ने संघ की शाखा में जाना शुरू किया। पिता की मौत के बाद संघ के कहने पर उन्होंने दुकान बंद कर दी। वापस अपने गांव गए, लेकिन वहां खेती भी नहीं कर पाए तो वापस भोपाल आ गए और कपड़ा मिल में मजदूरी की।

राजनीति में आने से पहले गौर ने भोपाल की कपड़ा मिल में मजदूरी की थी। श्रमिकों के हित में कई आंदोलनों में भाग लिया था। वे भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक सदस्य थे। 1974 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा उन्हें 'गोआ मुक्ति आंदोलन' में शामिल होने के कारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का सम्मान प्रदान किया गया था।




बुलडोजर मंत्री
बाबूलाल गौर को अपनी सख्त छवि के लिए भी जाना जाता है। नगरीय प्रशासन मंत्री रहते हुए उन्होंने अवैध निर्माण और अतिक्रमण पर बुलडोजर चलवा दिए थे। तब से उन्हें बुलडोजर मंत्री के रूप में पहचाना जाने लगा।



राजनीतिक सफर
बाबूलाल गौर मार्च 1990 से दिसंबर 1992 तक मध्यप्रदेश में भोपाल गैस त्रासदी राहत मंत्री, स्थानीय शासन, विधि एवं विधायी कार्य और संसदीय कार्यमंत्री रहे। गौर ने 23 अगस्त 2004 में उमा भारती के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद प्रदेश की कमान संभाली थी। 2003 में उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं। 10 साल पुराने मामले में उमा भारती को भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के कहने पर इस्तीफा देना पड़ा था। उमा ने गौर बतौर मुख्यमंत्री गौर का नाम आगे रखा और इस्तीफा दे दिया। उमा ने यह सोचते हुए बाबूलाल गौर को पद सौंपा कि जब वे कहेंगी गौर उनके कहने पर पह त्याग देंगे। इसके लिए उन्हें गंगाजल हाथ में रखकर कसम भी दिलाई। लेकिन, क्लीन चिट मिलने पर जब उमा ने उनसे इस्तीफा मांगा तो गौर ने साफ मना कर दिया था। वे 1974 से 2013 तक दक्षिण भोपाल और गोविंदपुरा सीट से लगातार 10 बार विधायक रहे थे।



वामपंथी पार्टी से शुरू किया था राजनीतिक सफर
बाबूलाल गौर ने अपना राजनीतिक जीवन वामपंथी पार्टी से शुरू किया था। पार्टी का मजदूर संगठन अक्सर मिल में हड़ताल कर देता था, जिससे रोजाना के हिसाब से तनख्वाह कट जाती थी। कुछ समय तक ऐसा चला। देखा तो हर महीने 10 से 15 रुपए तनख्वाह हड़ताल के कारण ही कट जाती थी, इससे मजदूरों को काफी नुकसान होता था। इस पर गौर ने लाल झंडा छोड़कर कांग्रेस का संगठन इंटक ज्वाइन कर लिया, लेकिन वहां भी मजदूर हित में काम नहीं होते देखा तो संघ का भारतीय मजदूर संघ ज्वाइन किया।



जेपी ने दिया आशिर्वाद
गौर को 1971 में जनसंघ ने पहली बार भोपाल से विधानसभा का टिकट दिया। वे करीब 16 हजार वोटों से चुनाव हार गए। इसके बाद जेपी नड्डा आंदोलन देशभर में शुरू हुआ। भोपाल में हुए आंदोलन में गौर शामिल हुए। फिर विधानसभा चुनाव आए तो जेपी ने जनसंघ के नेताओं से कहा कि यदि गौर को निर्दलीय खड़ा किया जाएगा तो वे उनका सपोर्ट करेंगे। उस समय जनसंघ के संगठन महामंत्री कुशाभाऊ ठाकरे थे। उन्होंने इसकी अनुमति दी। गौर ने 1974 में निर्दलीय चुनाव लड़ा और पहली बार जीत हासिल की थी। कुछ समय बाद जेपी भोपाल आए तो गौर ने उनके सर्वोदय संगठन को 1500 रुपए का चंदा दिया। जेपी ने उन्हें जीवन भर जनप्रतिनिधि बने रहने का आशीर्वाद दिया था।

सीएम बनने के 3 महीने बाद हुई थी बेटे की मौत
मुख्यमंत्री बनने के बाद बाबूलाल गौर श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में शिफ्ट हुए। उनके सीएम बनने के तीन महीने बाद ही उनके इकलौते बेटे पुरुषोत्तम गौर की हार्ट अटैक से मौत हो गई। कुछ दिन बाद उन्होंने पुत्रबधू कृष्णा गौर को पर्यटन निगम का अध्यक्ष बना दिया। इसका बीजेपी में काफी विरोध हुआ। नतीजतन कृष्णा को 13 दिन में पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद कृष्णा गौर भोपाल के महापौर का चुनाव जीतीं। 2018 के विधानसभा चुनाव में गोविंदपुरा सीट से विधायक बनीं।



बढ़ती उम्र के साथ बढ़ी मुश्किलें
लेकिन जून 2016 में भाजपा आलाकमान ने उम्र का हवाला देकर गौर को मंत्री पद छोड़ने के लिए कहा था। वे पार्टी के इस निर्णय से वे हैरान व दुखी थे। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा न उन्हें उम्र का हवाला देकर टिकट नहीं दिया। बाबू लाल गौर ने भी बगावती तेवर अपना लिए पार्टी के खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी। आखिरकार भाजपा ने उनकी जगह उनकी बहू कृष्णा गौर को टिकट दिया और कृष्णा को इस सीट पर जीत मिली।



गौर की बिगड़ी तबीयत और निधन
गौर लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उनकी उम्र 89 वर्ष थी। वह वृद्धावस्था संबंधी बीमारियों से जूझ रहे थे और वे पिछले 14 दिनों से भोपाल के नर्मदा अस्पताल में वेंटिलेटर सपोर्ट पर थे। 21 अगस्त 2019 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।

 

 

 

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This news is Edited By meena