लोकसभा चुनाव आते ही मोदी सरकार को क्यों आई सवर्णों की याद, पढ़ें इससे जुड़ी खास बातें

1/8/2019 7:13:30 PM

भोपाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवर्णों के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान कर दिया। भले ही देश की जनता आरक्षण खत्म करने के लिए तरह-तरह विरोध प्रदर्शन कर रही है, अपनी आपत्तियां जता रही है लेकिन मोदी सरकार के इस कदम से ये साबित हो गया है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण खत्म करने का विचार नहीं कर रहा है। देश में आरक्षण की राजनीति बहुत गहरी है। सभी चुनाव चाहे वो लोकसभा हों या विधानसभा हों, पर आरक्षण का सहारा लिया ही जाता है। केंद्र की मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से ऐन वक्त पहले सवर्णों को 10% आरक्षण देने का फैसला कर इस राजनीति को फिर से गरम कर दिया है। लोकसभा चुनाव के ऐन वक्त पहले बीजेपी का सवर्णों के लिए आरक्षण कहीं न कहीं मोदी सरकार की हताशा को व्यक्त करता है। क्योंकि बीजेपी शासित तीन राज्यों में मिली हार ने बीजेपी को अंदर ही अंदर हिला कर रख दिया है। 




     
देश के तीन राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में विधानसभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी को कहीं न कहीं ये बात समझ में आ चुकी है कि एससी-एसटी एक्ट की तरफदारी करने से उसका सवर्ण वोट बैंक हाथ से निकलता जा रहा है। मध्यप्रदेश में तो सवर्णों के संगठन सपाक्स ने शिवराज सिंह चौहान के बयान 'कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता' पर जमकर आंदोलन किया। हालांकि खुद सपाक्स को विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली लेकिन उसके आंदोलन ने जरूर बीजेपी को सत्ता से बाहर फेंक दिया। जिसके कारण केंद्र की बीजेपी सरकार को बड़ा झटका लगा है। आरक्षण को लेकर मोदी सरकार का ये फैसला चुनाव में सवर्णों की नाराजगी कम करने का प्रयास लगता है। लेकिन मोदी का यह मास्टर स्ट्रोक सही साबित हुआ तो लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की वापसी तय है। 


क्या हैं तीन राज्यों में बीजेपी की हार के मायने ?

लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी ने मध्यप्रदेश में 29 मे 27, छत्तीसगढ़ में 11 में 10 तो राजस्थान में सारी 25 सीटों पर जीत हासिल की थी। एसे में तीनों राज्यों के चुनावी नतीजे इस बात को स्पष्ट करते हैं कि बीजेपी इन राज्यों में 2014 वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा सकती है। तीन राज्यों की 65 लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में हार के बाद इन आंकणों में भारी फेरबदल देखा जा सकता है। क्योंकि विस चुनाव छत्तीसगढ़ में बीजेपी को एकतरफा हार का सामना करना पड़ा है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी पार्टी कांग्रेस से पीछे ही रह गई। एसे में कम से कम 25 से 30 सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा सकता है। जो कि बीजेपी के लिए एक चिंता का विषय है। क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सवर्णों का कुल 54 % वोट बैंक हासिल हुआ था। एसे में सवर्णों की सरकार के प्रति वर्तमान नाराजगी कम नहीं हुई तो यह भाजपा के लिए घाटे का सौदा होगा।  





कब-कब लाया गया सवर्णों के लिए आरक्षण बिल

  • वर्ष 1991 में मंडल कमीशन के ठीक बाद प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण का फैसला लिया था। लेकिन 1992 में कोर्ट के द्वारा इस फैसले को रद्द कर दिया था।
  • बिहार में भी 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को 03 फीसद आरक्षण देने का ऐलान किया लेकिन कोर्ट ने इस फैसले को बाद में निरस्त कर दिया।
  • तीन वर्ष पहले राजस्थान में भी 2015 में वसुंधरा सरकार ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक पिछड़ों को 14% आरक्षण देने का वादा किया था। लेकिन दिसंबर 2016 में राजस्थान हाईकोर्ट के द्वारा तत्कालीन बीजेपी सरकार के इस फैसले को रद्द कर दिया गया। 
  • गुजरात में भी अप्रैल 2016 में सामान्य वर्ग के आर्थिक पिछड़े लोगों को 10% आरक्षण देने का फैसला लिया था। लेकिन अगस्त में हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार के इस फैसले को रद्द कर दिया। 



     

वर्तमान समय में क्या है आरक्षण की स्थिति (राज्यवार) 

  • वर्तमान समय में देश में 15% आरक्षण एससी को, 7.5% एसटी को और 27% ओबीसी को आरक्षण (कुल 49.5%) प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार किसी भी हाल में देश में 50% से ज्यादा आरक्षण मान्य नहीं होगा।  
  • महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16% और मुसलमानों को 5% अतिरिक्त आरक्षण दिया गया है। 
  • तमिलनाडु में सबसे ज्यादा 69% आरक्षण लागू किया गया है। इसके बाद महाराष्ट्र में 52 और मध्यप्रदेश में कुल 50 % आरक्षण लागू है। यहां पर तय सीमा से अधिक आरक्षण होने के कारण सुप्रीम कोर्ट में केस भी चल रहा है। 



 


क्या वाकई 'आरक्षण' राजनीतिक पार्टियों के लिए फायदेमंद है ? 

राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो सभी पार्टियां चुनाव के वक्त आरक्षण की राजनीति को सबसे पहले अपना मुद्दा बनाती हैं। आरक्षण के फायदे व नुकसान दोनों है। यूपीए सरकार के दौर में कांग्रेस ने खुद को मुस्लिमों का सबसे बड़ा मसीहा बताने की कोशिश की और सत्ता से हाथ धो बैठी। बिहार विधानसभा चुनाव में भी संघ प्रमुख का आरक्षण को लेकर बयान बीजेपी के लिए ही भारी पड़ गया और बीजेपी हार गई। उत्तरप्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती तो दलित आरक्षण की एकतरफा राजनीति करने की कोशिश करती हैं लेकिन इन्हें भी विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ गया। अब मोदी सरकार सवर्णों के लिए आरक्षण का प्रावधान लेकर आई है। देखना होगा कि लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी को इसका क्या परिणाम मिलता है।



 

सवर्णों की नाराजगी दूर करने का प्रयास है 'आरक्षण'    

राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सवर्णों के लिए आरक्षण इस वर्ग की नाराजगी दूर करने का एक बड़ा प्रयास है। क्योंकि बीजेपी को तीन राज्यों की हार के बाद लोकसभा की राह आसान नहीं लग रही है और इसीलिए पार्टी ने सवर्णों को खुश करने के लिए उनके लिए आरक्षण लेकर आई है। लेकिन इस पर सरकार को संविधान में संसोधन करना होगा। हालांकि इसे पारित करा पाना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव करने की जरूरत पड़ेगी। 





सवर्णों के आरक्षण का फैसला ऐसे समय में आया है जब इसका विरोध किसी भी दल के लिए घाटे का सौदा हो सकता है। मध्यप्रदेश में बीजेपी की हार इसका जीता जागता प्रमाण है। एमपी में सवर्णों की राजनीति बीजेपी पर कितना भारी पड़ी ये सबने देखा है। इसिलिए अब कोई भी राजनीतिक दल नहीं चाहेगा कि सवर्ण उससे नाराज हों। हालांकि संसद में जरूर विपक्षी पार्टियां इसका सीधा विरोध न कर इसमें खोट निकालने की पूरी कोशिश करेंगी। 

Vikas kumar

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