100 की रिश्वत का 39 साल बाद न्याय, 83 साल की उम्र में मिली राहत, लेकिन जिंदगी बर्बाद
Thursday, Sep 25, 2025-01:23 PM (IST)

रायपुर। लगभग चार दशकों तक चलने वाले एक छोटे मगर दर्दनाक मामले का अंत अब हुआ। MPSRTC के पूर्व बिलिंग सहायक जागेश्वर प्रसाद अवधिया को 1986 में लगे ₹100 की रिश्वत के आरोप से आखिरकार छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बरी कर दिया। यह मामला 1986 से शुरू हुआ, जब उनके सहकर्मी अशोक कुमार वर्मा ने आरोप लगाया कि अवधिया ने बकाया राशि के लिए ₹100 की रिश्वत मांगी। लोकायुक्त ने नोटों पर फिनोलफ्थलीन पाउडर लगाकर उन्हें जाल में फंसाया। अवधिया का दावा था कि नोट उनकी जेब में जबरन रखे गए। बावजूद इसके उन्हें निलंबित कर दिया गया और 2004 में निचली अदालत ने दोषी ठहराया।
हाईकोर्ट का फैसला:
अदालत ने कहा कि केवल नोटों की बरामदगी से अपराध सिद्ध नहीं होता। रिश्वत की मांग और स्वेच्छा से स्वीकार्यता स्पष्ट रूप से साबित होना जरूरी है। अपर्याप्त सबूत और प्रक्रिया में खामियों को देखते हुए अवधिया को बरी कर दिया गया।
लेकिन 83 साल की उम्र में मिली यह जीत उनके लिए खोखली साबित हुई।
मुकदमेबाजी में खोई जिंदगी
अवधिया और उनके परिवार ने 39 साल तक न्याय की लंबी लड़ाई लड़ी। इस दौरान उनका करियर, आर्थिक स्थिति और पारिवारिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ।
जागेश्वर का कहना है कि “निलंबन के बाद आधी तनख्वाह में बच्चों को अच्छे स्कूल भेजना नामुमकिन था। बेटियों की शादी भी मुश्किल हुई। अब मैं अपने सबसे छोटे बेटे नीरज के लिए नौकरी चाहता हूँ, क्योंकि उसका भविष्य संघर्षों की वजह से प्रभावित हुआ है।”
उनके सबसे बड़े बेटे अखिलेश ने भी कहा कि 10वीं की पढ़ाई के दौरान उन्होंने घर चलाने के लिए छोटी-मोटी नौकरियाँ करनी पड़ीं। उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि पिता को मुआवजा दिया जाए और भविष्य में किसी को ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े।
सवाल बचता है
यह मामला भारत में लंबी मुकदमेबाजी की मानव कीमत को उजागर करता है। देरी से मिला न्याय अक्सर जीवन की स्थिरता, आजीविका और गरिमा को चोट पहुँचाता है। सवाल यह है कि जब न्याय इतना देर से मिलता है, क्या वह खोए हुए समय और अवसरों की भरपाई कर सकता है।